حِوارٌ..؟! حِوارْ. بعدكم ياحُماة النهارْ..! سنأتي ونشهدُ ترميمكم للجدارْ.. ألم تعلموا أننا في احتضارْ..؟! إننا في احتضارْ. وأنتم لنا حاملونْ.. - في حوارِ الحوارْ - وتحت أقدامِكمْ جنةٌ وحربٌ ونارْ.. لستُمُ في شِجارْ.. ولا في ظِهارْ.. إنما في خِيارْ..! فهَلاَّ تسيرون صوب الحياةْ.. في جنةٍ تحت سقفِ الديارْ..! إنه الاختبارْ..! خذوا حِذركمْ من صغارِ الكبارْ.. ولا تختِموهُ بخزيٍ وعارْ..! دريسدن - ألمانيا رابط المقال على الفيس بوك